विधानसभा चुनाव- 2023-क्या सत्ता के सेमीफाइनल से तय होगी दमोह संसदीय क्षेत्र के फाइनल की राह

विधानसभा प्रत्याशी चयन के जातिगत समीकरण बने भाजपा कांग्रेस की उलझन

Assembly Elections- 2023- Will the semi-final of power decide the path to the final of Damoh parliamentary constituency?
Assembly Elections- 2023- Will the semi-final of power decide the path to the final of Damoh parliamentary constituency?

(बुन्देली बाबू) मध्यप्रदेश में आगामी विधानसभा चुनावों के प्रत्याशियों के चयन में उलझी भाजपा और कांग्रेस के लिए जातिगत आंकड़ों को साधना टेड़ी खीर साबित होता रहा है। विधानसभा चुनावों को सत्ता के सेमीफाइनल के रूप में मानकर दोहरी तैयारियों में जुटी भाजपा के लिए इस बार जातीय संतुलन कठिन समस्या है जो उसके भविष्य को तय करेगी। दमोह संसदीय क्षेत्र में विगत लोकसभा चुनावों में लगातार पराजय झेल चुकी कांग्रेस इस बार विधानसभा चुनावों में जातिगत संतुलन के जरिये आगामी संसदीय चुनाव में भाजपा के लिए कठिन चुनौती पेश करने की तैयारी कर रही है।

विगत विधानसभा चुनावों में पार्टी को मिली सफलता से लबरेज कांग्रेस की ओबीसी नेताओं से बढ़ती नजदीकिया भी इसी राजनीति का हिस्सा हो सकती है। दरअसल इस लोकसभा की अधिकांश विधानसभाओं में ओबीसी वर्ग के वोटर बड़ी संख्या में है जिन्हे साधकर चुनावी वैतरणी पार करने की तैयारी है।

विगत चुनावों पर नजर डाले तो इस लोक सभा सीट के प्रत्याशियों के चयन से लेकर विधानसभा की 8 सीटों में से अधिकांश में प्रत्याशियों के चयन का आधार जातिगत बहुलता ही रहा है। इसी गणित के जरिये भाजपा चुनावों में सीटों का संधान कर सफलता प्राप्त करती रही है। परंतु विगत विधानसभा चुनावों में उसकी चूक के कारण उभरी बगावत ने पार्टी के कान खड़े कर दिये है नतीजन पार्टी बिद द डिफरेंस इस बार फूंक फूंक कर कदम रख रही है। परंतु ऐसी स्थिति में रूठो को संतुष्ट करने के प्रयास भाजपा समर्थित अन्य वर्गो को नाराज कर पार्टी के लिए बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकते है।

संभवतः नवम्बर में तय माने जाने वाले प्रदेश की विधानसभाओं चुनावों को लेकर जहाँ कांग्रेस हर कदम पर सत्तारूढ़ भाजपा के लिए चुनौतिया पेश कर रही है वही इससे पृथक भाजपा इन चुनावों के साथ ही आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गई है। मध्यप्रदेश में पार्टी की केन्द्रीय टीम को प्रचार की कमान सौपे जाने के साथ ही वन नेशन वन इलेक्शन के मसोदा की तैयारी भाजपा की उसी रणनीति का हिस्सा है।

प्रदेश में भाजपा द्वारा निकाली जा रही 5 जन आशीर्वाद यात्राओं में केन्द्रीय नेताओं को चेहरे के रूप में पेश करना पार्टी में पनप रही गुटबाजी को खत्म करने के साथ ही सत्ता के सेमीफाइनल में ही मतदाताओं से करीबी बनाने का प्रयास है। जिसके जरिये भाजपा प्रदेश में लोकसभा परिणामों के अपने पुराने प्रदर्शन को दोहराने की तैयारियों में जुटी है।

भाजपा का अजेय गढ़ बनी दमोह लोकसभा

बुंदेलखण्ड इलाके की अहम दमोह लोकसभा सीट के संबंध में चर्चा करे तो इस सीट पर भाजपा लंबे समय से काबिज है, वर्ष 1991 में भाजपा के लोकेन्द्र सिंह ने इसे जीतकर पार्टी के पाले में ला दिया जिसके बाद से इस पर भाजपा का कब्जा बना हुआ है। लोकसभा परिसीमन के बाद भी भाजपा इस पर अपनी बादशाहत बरकरार रखने में कामयाब रही है।

इसमें सबसे अहम रोल विधानसभा क्षेत्र के प्रत्याशियों के चयन सहित पार्टी संगठन में जातिगत संतुलन बनाये रखने का रहा है। लोकसभा क्षेत्र की विधानसभा सीटों की स्थिति पर चर्चा करे इसमें विधानसभा की कुल 8 सीटों में दमोह, हटा, बड़ा मलहरा, पथरिया, जबेरा, बंडा, रहली देवरी आती है। संसदीय क्षेत्र में जातिगत आंकड़ों की बात करे तो इस क्षेत्र में लोधी, कुर्मी, यादव मतदाताओं के साथ ही अनुसूचित जाति वर्ग, ठाकुर, कुशवाहा एवं ब्राम्हण, मतदाताओं की अच्छी तादाद है। इसी कारण लोकसभा-विधानसभा चुनावों में भाजपा को सफलता मिलती रही है।

विगत विधानसभा चुनावों में पार्टी में उभरी बगावत के कारण उसे दमोह, बंडा, बड़ा मलहरा, देवरी और पथरिया सीट गवांनी पड़ी थी। इसमें लोधी एवं कुर्मी सहित कुशवाहा एवं ठाकुर मतदाताओं का असंतोष अहम कारण रहा था। परंतु विगत लोकसभा चुनावों की सफलता ने उसे फिर पहले पायदान पर लाकर खड़ा कर दिया है। विगत 2 उप चुनावों में से उसे एक उप चुनाव में सफलता प्राप्त हुई थी। अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव सिर पर है और भाजपा के लिए सर्वमान्य प्रत्याशी चयन करना टेड़ी खीर साबित हो रहा है।

परंपरागत वोटरों को थामना भाजपा की चुनौती

यदि विधानसभावार जातिगत आंकड़ों को देखे तो लोक सभा की जबेरा, दमोह, बड़ा मलहरा, बंडा और देवरी विधानसभाओं में लोधी समाज के मतदाताओं की अच्छी संख्या है इसमें से बंडा, जबेरा, दमोह एवं बड़ा मलहरा में इनकी बहुलता किसी से छिपी नही है परंतु इन सीटो पर यादव सहित अन्य जाति मतदाताओं की संख्या भी दूसरे पायदान पर है, साथ ही ब्राम्हण एवं ठाकुर
मतदाताओं के साथ अनुसूचित जाति एवं जैन मतदाता भी काफी संख्या में है।

जिले की जबेरा विधानसभा में आदिवासी मतदाताओं प्रभावी संख्या में है जिनका रूझान सियासी गणित तो बिगाड़ने और किसी प्रत्याशी को जिताने की क्षमता रखता है। वही पथरिया, हटा, रहली एवं देवरी में कुर्मी मतदाता बड़ी संख्या में है। इनके साथ ही इन स्थानों पर ठाकुर, ब्राम्हण, कुशवाहा एवं अनुसूचित जाति के मतदाताओं की संख्या भी प्रभावी भूमिका में है। अगर पार्टियों के परंपरागत वोटरों की बात करे तो विगत वर्षो में पिछड़ी जातियों में अपने नेता स्थापित कर भाजपा लोधी, कुर्मी, यादव, कुशवाहा आदि समाजों में गहरी पैठ बनाने में कामयाब रही है। वही

ब्राम्हण, जैन एवं ठाकुर मतदाताओं में भी उसका प्रभाव बना रहा है। परंतु इन चुनावों में अपने परंपरागत वोटरों को थाम कर रखना भाजपा के लिए कठिन चुनौती से कम नही है, दर असल विगत लोकसभा एवं विधानसभा चुनावों सहित निकाय चुनावों में टिकिट वितरण में जातिगत असंतुलन की स्थिति का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। पार्टी की अपने परंपरागत वोटर वर्ग की कई जातिया है जिनकों टिकिटों में भागीदारी सहित भाजपा पार्टी संगठन एवं निगम मंडल में भी स्थान नही दिला पाई है।

ये चूक इस चुनाव में गहरी खाई बनकर पार्टी की मुसीबत को बड़ा सकती है, वर्तमान चुनावों को लेकर भाजपा की पहली सूची में लोकसभा की पथरिया से पार्टी के पुराने चेहरे और कुर्मी नेता लखन पटैल को प्रत्याशी घोषित किया गया है वही बंडा विधान सभा से वीरेन्द्र लोधी को अपना उम्मीदवार घोषित किया गया है।

जिसका एक मुख्य कारण उस क्षेत्र में उस वर्ग की बहुलता को माना जा रहा है। शेष सीटों में से आरक्षित सीट हटा को छोड़कर अन्य सीटों पर प्रत्याशी चयन में जातिगत संतुलन बनाये रखना भाजपा के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। विगत चुनावों के परिणामों में लोक सभा की 4 सीटों पर परचम लहरा कर कांग्रेस ने अपनी प्रभावी उपस्थिति की अहसास कराया था साथ पथरिया सीट जीतकर बसपा ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया था।

पिछले चुनाव में कांग्रेस ने दी थी मात

विगत लोकसभा चुनावों में मोदी और हिन्दुत्व की लहर पर सवार होकर बुंदेलखण्ड की सभी सीटो पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ करने वाली भाजपा के लिए अपने परंपरागत वोटोें को बचाना कठिन चुनौती नजर आ रही है। विगत 2018 के चुनावों में बुंदेलखण्ड के एक बडे़ इलाके में भाजपा के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाकर कांग्रेस ने पार्टी के लिए ड्राई जोन साबित हो रहे इस इलाके में अंसतुष्टो के सहारे बड़ी चोट दी थी। और विगत विधानसभा चुनावों में भाजपा की लहर और आंधी को समेटकर कांग्रेस ने बहुमत के करीब पहुँचकर सबकों चौका दिया था।

विगत चुनावों में टिकिट वितरण में हुई खामियों के कारण भाजपा को कई सीटे गवांनी पड़ी थी। लोकसभा क्षेत्र की आधी सीटे जीतकर उसने भाजपा को पीछे छोड़ दिया था। इस बार फिर जातीय संतुलन भाजपा के बहुत चुनौतीपूर्ण साबित होता जा रहा है। दरअसल भाजपा मौजूदा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनावों का खाका तैयार करने में जुटी है ऐसे में पार्टी के लिए सबका साथ अहम है। जिताऊ चेहरों को टिकिट देकर पार्टी को सत्ता का सेमीफाइनल जिताने की तैयारी में जुटे नेता जातिगत असंतुलन पैदा कर फाइनल के लिए कठिन चुनौती खड़ी कर सकते है।

वही भाजपा के असंतुष्टों के सहारे अपनी नैया पार लगाने वाली कांग्रेस इस बार कुछ नया आजमाने की तैयारियों में जुटी है, भाजपा के असंतुष्टों की घर वापिसी के कारण फिर हाशिए पर आ चुकी कांग्रेस इस बार 27 फीसदी आरक्षण के मुद्दे को धार देने के साथ ही पिछड़ा वर्ग के नेताओं की लामबंदी कर पिछले प्रदशर्न को दोहराने की पुरजोर कोशिश में जुटी है।

जिताऊ और टिकाऊ चेहरों में चयन की चुनौती

दरअसल विधानसभा चुनावों को लेकर भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व और प्रदेश संगठन में प्रत्याशी चयन को लेकर समन्वय स्थापित करना एक बड़ी बाधा बना हुआ है। पार्टी के प्रदेश के क्षत्रप इसे चुनावी जीत के चश्मे से देख रहे है जिसके चलते कई सीटों पर जिताऊ चेहरों को सामने लाकर पुनः सरकार में काबिज होने का मंसूबा बनाये हुए है वही केन्द्रीय दल इसके आगामी चुनावों पर संभावित प्रभावों को लेकर संशय की स्थिति में है।

ऐसे में पार्टी वर्करों एवं मतदाताओं की अहसहमति पार्टी के लिए भविष्य में मुसीबत खड़ी कर सकती है। लोकसभा की जबेरा देवरी, दमोह और बड़ा मलहरा सीटों में टिकिट के इक्छुक नेताओं की लंबी फेहरिस्त है इसमें सर्वमान्य प्रत्याशी का चयन भाजपा के लिए राई के पहाड़ में सुई खोजने जैसा है। लोकसभा क्षेत्र की कुछ सीटो पर बाहरी नेताओं को लेकर पार्टी में असंतोष और अंदरूनी कलह है तो कुछ सीटो पर पार्टी से बगावत कर चुके नेताओं को लेकर नाराजगी उजागर हो रही है ऐसे में इन चुनावों में पार्टी के चयन पर सभी की निगाहे टिकी हुई है।

वही कांग्रेस की बात करे तो वह एक बार फिर भाजपा में टिकिट वितरण के असंतोष को कलह में बदलने का इंतजार कर रही है। विगत समय में पार्टी के दिग्गज रहे नेताओं की अकस्मात सक्रियता और पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के गुप्त प्रवास कांग्रेस की नई रणनीति का संकेत दे रहे है। ऐसे में लगातार बदल रहे समीकरण चुनावी परिदृश्य को रौचक बना सकते है।

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