सागर जिले के जातीय समीकरण में उलझ सकता है भाजपा-कांग्रेस की जीत का गणित (assembly election -2023)

देवरी, सागर बीना और नरयावली विधानसभा सीटों में प्रत्याशी चयन की उलझने बढ़ी

he mathematics of victory of BJP and Congress may get entangled in the caste equation of Sagar district.
he mathematics of victory of BJP and Congress may get entangled in the caste equation of Sagar district.

अभिषेक गुप्ता (रानू) आगामी विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों ने सागर जिले में राजनैतिक पारा बढ़ा दिया है, गली-चौराहों और सार्वजनिक स्थलों पर चुनावी चर्चाओं का दौर शुरू हो चुका है। जिले की 8 विधानसभा सीटों पर प्रत्याशी चयन को अंतिम रूप देने में जुटी सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस के लिए जिले की सीटो में जातीय संतुलन टेड़ी खीर साबित हो रहा है।

वही आरक्षित सीटो पर भी टिकिट को बढ़ रही कशमाकश और गुटबाजी परिदृश्य को पेचीदा बना रही है। अपने परंपरागत वोटरों को साधने की जुगत में लगे दोनो दलों के समक्ष प्रत्याशी चयन में जातीय संतुलन बनाये रखना कठिनाईयों से भरा है, कई सीटो पर इसी फेर में लगी पार्टिया प्रत्याशी चयन में एक दूसरे को उलझाने में कोई कसर नही छोड़ रही है।

प्रदेश में नवम्बर माह में संपन्न होने जा रहे विधानसभा चुनावों को लेकर सत्ता और विपक्ष की निगाहे बुंदेलखण्ड की सभी 29 सीटो पर जमी हुई है। विगत लोकसभा चुनावों में प्रदेश के बुंदेलखण्ड इलाकों में भाजपा को मिली सफलता को बरकरार रखना उसके लिए कठिन चुनौती है। इसी इलाके के प्रमुख जिले सागर में मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस पार्टी के मध्य है।

वर्तमान में जिले की 8 में से 6 सीटों पर भाजपा काबिज है। दरअसल विगत 2018 के चुनाव में जिले से भाजपा को 5 सीटे सागर, बीना, खुरई, रहली और नरयावली पर जीत हासिल हुई थी वही कांग्रेस को सुरखी, बंडा और देवरी सीटे हासिल हुई थी परंतु बाद में कांग्रेस में सिंधिया खेमे की बगावत ने कमलनाथ सरकार गिरा दी जिसके बाद हुए उपचुनाव में सुरखी सीट भाजपा के खाते में चली गई। सीटों के नये समीकरणों से भाजपा को सत्ता मिली और प्रदेश की सरकार में सागर जिले का दबदबा बढ़ गया जिले से 3 केबिनेट स्तर के मंत्री बनाये गये।

सत्ता के संधान के बाद विगत वर्षो में पूरे जिले में भाजपा ने अपना वर्चस्व कायम रखा है परंतु उसके गुटबाजी और सत्ता में भागीदारी के असंतुलन को पाटना भाजपा के लिए एक अहम समस्या बनी हुई है। जिले में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की खेमेबाजी किसी से छुपी नही है राजनैतिक नूरा कुश्ती कब वर्चस्व की लड़ाई बन गई इसका अंदाजा शायद उन्हे भी नही होगा। टिकिट के बंटवारे में यू तो जिले के नेताओं का दखल न के बराबर है परंतु जिले में वरिष्ठ विधायकों की बढ़ती संख्या पार्टी के स्थापित क्षत्रपों के लिए भविष्य के आंखों की किरकिरी बनने की चर्चा पार्टी हलकों में खुलकर की जा रही है। अब इन सीटों पर बढ़ते दावेदार भी ऐसी संभावनाओं को मंत्र के रूप में इस्तेमाल कर टिकिट पाने के जरिये के रूप में इस्तेमाल कर पार्टी की मुश्किलों को बढ़ा रहे है।

क्या फूट और सत्ता विरोध होगा जीत का महामंत्र

भाजपा सेे पृथक कांग्रेस की बात करे तो संगठन में बिखराव की समस्या से जूझ रही कांग्रेस को भाजपा में जड़ तक फैल चुके अहम और वहम की लड़ाई का भरपूर फायदा मिलता नजर आ रहा है। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की कहावत जिले की राजनीति में चिरतार्थ हो रही है प्रत्याशियों के आभाव का सामना कर रही कांग्रेस को एक के बाद एक छींका टूटने का भरपूर फायदा मिल रहा है। पर ये भविष्यगामी है कि उक्त छींकों से माखन हासिल होगा कि मठ्ठे का रायता फैल जाएगा।

फिलहाल सत्ता पक्ष की फूट और आफसी विवाद कांग्रेस के लिए शुभ महूर्त से कम नही है सत्ता विरोध की लहर पर सवार कांग्रेस का कुनबा एक के बाद एक जुटता जा रहा है ऐसे में जिले में होने वाले चुनाव रोचक होने की पूरी संभावना बनी हुई है। जिले की सीटों में आरक्षित सीटों के साथ पिछड़ा वर्ग बहुल इलाकों वाली सीटे इस बार कांग्रेस का निशाना होगी ऐसे में भाजपा
की मुश्किले बढ़ सकती है।

परंतु आरक्षित सीटों पर कांग्रेस के लिए प्रत्याशी चयन अब भी कांटो का सफर है। विगत चुनावों में रिपीट फिर रिपीट का फार्मूला कारगर साबित न होने के बाद भी पार्टी के लिए मजबूरी बना हुआ है, इन सीटों पर पार्टी के परंपरागत वोटो की बहुलता के बाद भी सफलता न मिल पाना पार्टी के लिए किसी दंश से कम नही है। ऐसे में कांग्रेस की कोशिश इन सीटो को हासिल करने के लिए पुरजोर प्रयास करने की भी होगी। लंबे समय से शहरी मतदाताओं में जमीन खो चुकी कांग्रेस के लिए वर्तमान समय अपनी जड़े जमाने के लिए मुफीद हो सकता है।

दरअसल विगत कुछ वर्षो में बढ़ती बेरोजगारी और महंगाई ने शहरी मतदाताओं में सरकार के प्रति निराशा भर दी है, इसके अतिरिक्त भाजपा के हिडन ऐजेंटे माने जाने वाले विषयों को प्राथमिकता दिया जाना बुद्धिजीवी वर्ग के लिए नाराजगी का विषय बना हुआ है। ऐसे में धर्म निरपेक्ष छवि से साफ्ट हिन्दुत्व की ओर रूख कर रही कांग्रेस ऐसी स्थितियों का फायदा उठा सकती है।

परंपरागत वोटो का बिखराव राजनैतिक दलों की चिंता

अगर जिले में दलीय जातिगत मतदाताओं के आंकड़ों की बात करे तो विगत दशको में इनका मूवमेंट अस्थिर बना रहा है, कभी बामन-बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने जिले में पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं को साधकर अपनी गहरी पैठ बनाई है। साथ ही अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अपने पाले में लाकर उसने जिले की दोनो आरक्षित सीटो पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। विगत दिनो प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा जिले में विशालकाय श्री रविदास मंदिर के निर्माण की आधार शिला रखकर भी एक वर्ग के हितेषी होने का संदेश देने की पुरजोर कोशिश की गई थी।

जिले के अनुसूचित जनजाति वर्ग में लंबे समय से जमीन तलाश रही भाजपा ने विगत समय में इस रिक्तता को पाटने की भरपूर कोशिश की है आदिवासी महानायकों की जयंतियों एवं महापुरूषों के आयोजन सहित अन्य अवसरो के माध्यम से इस वर्ग के समीप जाने का प्रयास किया है। संघ के विभिन्न संगठन भी इन क्षेत्रों में लंबे समय से सक्रिय है और वैचारिक माहौल तैयार करने के लिए प्रयासरत है।

इसके बाद भी विगत वर्षो में सत्ता और संगठन में भागीदारी का जातीय असंतुलन भाजपा की एक बड़ी कमजोरी बनकर बनकर उभर सकती है, दर असल विगत लगभग दो दशकों से भाजपा प्रदेश में सत्तारूढ़ हैं, इस काल में उभरे घटनाक्रम भाजपा के प्रति बढ़ते असंतोष को बढ़ा सकते है। पार्टी के बड़े नेताओं की पद लोलुपता किसी से छिपी नही है निकाय एवं पंचायत चुनावों में अपनो को उपकृत करने की पिरपाटी और मैं और मेरा की मानसिकता ने पार्टी में ही कई जातीय गुट बना दिये है। वर्चस्व को लेकर उपजे मतभेदों ने भी जातीय असंतुलन की आग को हवा देने में कोई कसर नही छोड़ी है ऐसे में टिकिट वितरण में परंपरागत जातियों को नाराज करना भाजपा के लिए महंगा साबित हो सकता है।

वही जिले में कांग्रेस की बात करे तो बीते वर्षो में कांग्रेस का प्रदर्शन सिर्फ औपचारिक रहा है, जिले में उभरे विभिन्न घटनाक्रम एवं जनता से जुड़े मुद्दों को भी भुनाने में वह विफल रही है। ऐसी स्थिति में कांग्रेस को भी इसका समुचित लाभ मिल पाने में संशय बना हुआ है। जिले में कांग्रेस संगठन का इतिहास भी किसी 80 के दशक की फिल्मी कहानी से कम नही है, पहले बंगलों और बगीचों से संचालित रही कांग्रेस विगत 2 दशक के लंबे समय तक किला कोटी के वैभव में बंधी रही अब इन आश्रयों से मुक्त होकर भी उसे अपने वास्तविक स्वरूप में वापिस लौटाना पार्टी नेताओं के लिए कठिन साधना से कम नही है।

दर असल स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस एक वैचारिक आंदोलन रही है, जिसके मानक और मूल्य आज भी जन सामान्य की सोच में शामिल है, परंतु उसे उभारने और पार्टीगत प्रस्तुतिकरण में कांग्रेस विफल रही है। इसके विपरीत भाजपा ने इन्हे भुनाकर उसे हाशिए पर ढकेलने का पूरा प्रयास किया है। कांग्रेस के अपने परंपरागत वोटर वर्ग का उससे लगातार दूर होना चिंता का विषय
बना हुआ है, क्षेत्रीय पार्टियों से चुनौती के साथ ही भाजपा भी उसके वोटरों को साधने में कामयाब रही है।

जातिगत आंकड़े बिगाड़ सकते है जिले का समीकरण

जिले में हुए विगत चुनावों पर नजर डाले को मतदाताओं के बदलते रूझान हर बार पार्टियों के लिए मुसीबत बने रहे है, पार्टी संगठनों में विभिन्न जातियों की भागीदारी जिले में सत्ता का गणित तैयार करती रही है। विगत वर्षो में देखा जाए तो भाजपा ने अपने संगठनों में विभिन्न जातीयों के नेताओं को तरजीह देकर अपने चुनावी गणित को सफलता पूर्वक संभाला है।

परंतु सत्ता और सरकार में भागीदारी के मुद्दे पर व्याप्त असंतोष पार्टी के लिए नुकसानदायक हो सकता है। जिले की कई सीटो पर पिछड़े वर्ग के वोटर भाजपा के लिए निर्णायक जमीन करते रहे है इस वर्ग की आधा दर्जन से अधिक जातिया है जो पार्टी के लिए थोक वोट जुटाती रही है। परंतु उक्त जातियों में से गिनी चुनी जातियों को ही सत्ता में भागीदारी नसीब हुई है। ऐसे में जातीय असंतुलन से उभरे असंतोष के स्वर पार्टी को मुसीबत में डाल सकते है।

पार्टी ने जिले की बंडा सीट में बदलाव कर इसी असंतोष को थामने की कोशिश की है परंतु अन्य जातियों को पार्टी फ्रेम में रखना कठिन होगा। जिले में विगत वर्षो में सत्ता को लेकर पार्टी के प्रमुख चेहरो की आफसी खीचतान और वर्चस्व की जंग ने भी जातीय गुटों को हवा दी है ऐसे में उसकी राह आसान नही होगी। परंतु अनुसूचित वर्ग में उसकी पैठ पूर्व तुलना में मजबूत हुई है इसमें उसके हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के मुद्दे उसे इस वर्ग के करीब ले आये है, परंतु इन वर्गो से मजबूत चेहरा न होना उसके लिए एक दंश के जैसा है।

इससे पृथक कांग्रेस के अपने संगठन और मंचो पर जातिगत समीकरण कमजोर होता जा रहा है, विगत वर्षो में पार्टी के पुराने चेहरों के परिदृश्य से बाहर जाने के बाद वह उन वर्गो से नये चेहरे स्थापित करने में नाकामयाब रही है। पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के मुद्दे को लेकर उसकी सक्रियता उसे जिले में बड़ा लाभ दिला सकती है, जिले में पिछड़े वर्ग को साधने के प्रयास में लगे नेता यदि सोशल इंजीनियरिंग में सफल रहे तो अप्रत्याशित नतीजे सामने आ सकते है परंतु ऐसे में उसे प्रत्याशी चयन में भी वर्गो को साधने की चुनौती कठिन होगी।

साथ ही नेताओं की आफसी प्रतिस्पर्धा और महत्वकांक्षाये भी उसकी राह की सबसे बड़ी बाधा होगी। अपने परंपरागत वोटर वर्ग में उसका लगातार लचर प्रदर्शन उसकी संगठनात्मक कमजोरी को दर्शाता है, जिले में पार्टी में इस वर्ग के बड़े नेताओं की मौजूदगी के बाद भी सक्रियता का आभाव बना हुआ है, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनतजाति सहित अल्पसंख्यक वर्ग में उसकी कमजोर होती पकड़ चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे में इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों के चुनावों में उतरने से उसकी समस्या कई गुना बढ़ सकती है।

ऐसा नही है कि जिले में अपने परंपरागत वोटरों की अरूचि से पार्टी हाईकमान अनभिज्ञ है, राष्ट्रीय अध्यक्ष को चेहरे के रूप में पेश कर उसने इस गेप को समाप्त करने की पुरजोर कोशिश की है।

कही आभाव कही लगी लंबी कतार

जिले की कुछ सीटों पर कांग्रेस एवं भाजपा के लिए प्रत्याशी चयन कांटो का सफर बना हुआ है, जिले की सागर सीट पर लगातार हार का सामना कर रही कांगेस इस बार फिर असमंजस में है। विगत चुनावों में कई प्रयोग कर चुकी कांग्रेस इस बार फिर कुछ नया अजमाकर भाजपा को सकते में डाल सकती है, दोनो पार्टिया स्थिति को भांपकर एक-दूसरे के चेहरों का इंजतार कर रही है।

जिले की बीना सीट पर कांग्रेस को विगत चुनाव में छोटे से अंतर से पराजय का सामना करना पड़ा था परंतु इस बार पर्याप्त माहौल होने के बाद भी उसके पास एक सक्षम चेहरे का आभाव बना हुआ है। सुरखी और खुरई में कांग्रेस सत्तासीन भाजपा के विद्रोह को हवा देकर अपना समीकरण साधने में लगी है। जिले में भाजपा का गढ़ कही जाने वाली रहली सीट पर कांग्रेस के
एक से अधिक दावेदार है यहाँ पिछड़ा समीकरण पार्टी की रणनीति का हिस्सा होंगे।

नरयावली में इस बार 3 से अधिक प्रभावी चेहरे टिकिट की प्रत्याशा में है ऐसे में उचित चयन कठिन होगा। जिले की बंडा और देवरी सीट कांग्रेस के खाते में गई थी यहाँ पुराने चेहरों के अतिरिक्त अन्य भी दावेदार है।

वही भाजपा की बात करे तो वर्तमान में जिले की 6 सीटो पर काबिज भाजपा एक या दो चेहरे बदलने की तैयारी में है, वही एक चेहरे को दूसरी सीट पर स्थानांतरित करने की रणनीति पर भी विचार चल रहा है। विपक्ष के खाते में गई बंडा सीट पर पहली लिस्ट में प्रत्याशी घोषित कर भाजपा ने पार्टीगत उठापटक और नाराजगी को समय रहते शांत करने की रणनीति अपनाई है। वही देवरी सीट पर एक दर्जन से अधिक दावेदार पार्टी के लिए उलझन का विषय है, विगत चुनावों में समन्वयवादी चेहरे को सामने रखकर कड़ी चुनौती पेश करने में सफल रही पार्टी एक बार फिर सर्वमान्य प्रत्याशी चयन की राह में है। जिले में भाजपा अपने प्रदर्शन को बरकरार रखने के लिए प्रयासरत है वही कांग्रेस भाजपा के गढ़ों में सेंध लगाने की तैयारी में है।

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